Sunday, March 31, 2019

साइलेंट किलर हैं किडनी के रोग

राजीव शर्मा

गुर्दे सम्बन्धी बढ़ती बीमारियां सारी दुनिया के लिए चिंता की वजह हैं। गुर्दे सम्बन्धी बीमारियां आज दुनिया में मौत की छठी सबसे बड़ी वजह बनी हुई हैं।  किडनी स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए हर साल गुर्दा दिवस मनाया जाता है। इस बार भी 14 मार्च को 'वर्ल्ड किडनी डे' मनाया गया। थीम थी--किडनी हेल्थ फॉर एवरी वन एवरी व्हेयर (किडनी का स्वास्थ्य सबके लिए, सब जगह)।

जिस रफ्तार से युवाओं और बच्चों में भी किडनी फेलियर के मामले बढ़ रहे हैं, उसने 'गुर्दा दिवस'  की अहमियत बढ़ा दी है। बच्चों और युवाओं में इस बीमारी के पांव पसारने की बड़ी वजह है, स्वास्थ्य के प्रति उदासीनता और जीवन शैली के प्रति लापरवाही।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक इस समय दुनिया में 85 करोड़ लोग गुर्दे की किसी न किसी समस्या से जूझ रहे हैं। गुर्दे सम्बन्धी बीमारियों के कारण हर साल 24 लाख लोग अकाल मौत का शिकार होते हैं। इससे जुड़ी एक बड़ी मुश्किल यह है की यदि आपने किडनी फेल हो जाने के बाद किसी दूसरे का गुर्दा प्रत्यारोपित करवा भी लिया, तो यह जरूरी नहीं कि आप स्वस्थ हो ही जाएं। प्रत्यारोपण भी 80 फीसदी लोगों में ही सफल होता है।

भारत में भी किडनी फेल होने की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। बहुत बार तो जब तक बीमारी का पता चले और उसका इलाज शुरू हो, मरीज उससे पहले ही दुनिया से कूच कर जाते हैं। ऐसा होने की सबसे बड़ी वजह यह है कि गुर्दों को लेकर लोगों में जानकारी का अभाव है। इसलिए अंतिम समय आ जाने तक भी उन्हें अपनी बीमारी का पता ही नहीं चलता।

दूसरी बड़ी वजह यह है कि देश के बहुत कम अस्पतालों में ही इसके समुचित इलाज का इंतजाम है। तीसरा बड़ा कारण है कि डायलिसिस या प्रत्यारोपण  इतना महंगा है कि वह आम आदमी की पहुंच से बाहर बना रहता है। इसलिए आमतौर पर ज्यादातर गुर्दे के मरीज लाचारों की तरह खुद को मौत के मुंह में जाता हुआ देखते के अलावा कुछ कर नहीं पाते।

यह जानना जरूरी है कि गुर्दे कैसे काम करते हैं और इनसे जुड़ी बीमारियों के लक्षण क्या हैं? गुर्दे लाखों छलनियों और 140 मील लंबी नलिकाओं से बना एक तंत्र है। ये हमारे रक्त से नुकसानदेह पदार्थों को बाहर निकालकर उसे साफ करते हैं। ये गैर जरूरी पदार्थों को जैसे बाहर निकलते हैं, वैसे ही जरूरी पदार्थों सोडियम,कैल्शियम और पोटेशियम आदि को वापस अपने में सोख लेते हैं।

गुर्दे हर रोज़ करीब 200 लीटर खून को प्रोसेस करते हैं और करीब दो लीटर पेशाब तैयार करते हैं। पेशाब के जरिए ही ये गैर जरूरी पदार्थों को शरीर से बाहर निकलते हैं। गुर्दे कुछ हार्मोन भी बनाते हैं और ब्लड प्रेशर और पानी की मात्रा को नियंत्रित करते हैं। ये शरीर में लवण और धातुओं की मात्रा भी संतुलित करते हैं।

चिकित्सक इनसे जुड़ी समस्याओं को जानने के लिए कुछ लक्षणों पर गौर करते हैं। जैसे लगातार थकान महसूस होना, ध्यान केंद्रित न कर पाना, भूख कम लगना, सोने में समस्या आना, मांसपेशियों में खिंचाव, सूखी और खुजली वाली त्वचा होना और रात में बार-बार पेशाब जाना। संदेह होने पर डॉक्टर इसके लिए सबसे पहले ब्लड प्रेशर फिर किडनी फंक्शन टेस्ट और अल्ट्रासॉउन्ड से गुर्दे की हालत का पता करते हैं।

लम्बे समय तक चलने वाली गुर्दे की बीमारी को 'क्रॉनिक किडनी डिसीज' कहते हैं। यदि तुरंत उपचार शुरू न किया जाए तो किडनी फेल होने का खतरा रहता है। भारत में क्रॉनिक किडनी डिसीज के आंकड़े इकट्ठा करने के लिए भारत और अमेरिका ने मिलकर एक सर्वे कराया था जिसमें पाया गया कि 17.2 फीसदी लोगों को सीकेडी है।
 
चिकित्सा के मामले में डॉक्टर सबसे पहले यह देखता है कि क्या किडनी की समस्या सिर्फ किसी संक्रमण की वजह से है जिसका इलाज एंटीबायटिक दवाओं से किया जा सकता है या यह कोई गंभीर मामला है। कभी कभी किडनी में ट्यूमर बन जाता है। आज यह मुमकिन है कि ट्यूमर को किडनी से बाहर निकाला जाए और उसके बाद किडनी का इलाज शुरू हो। लेकिन यदि इलाज में देरी हो चुकी है तो फिर दो ही उपाय बचते हैं -- या तो ख़राब किडनी निकालकर मरीज को एक ही किडनी पर चलाया जाए। यदि यह मुमकिन न हो तो फिर किडनी ट्रांसप्लांट की जाए।

किडनी या गुर्दे की बीमारियों से बचे रहने के लिए डॉक्टर बहुत सी सावधानियां बताते हैं। मसलन धूम्रपान से दूर रहो,अल्कोहल का सेवन बिलकुल मत करो, नियमित व्यायाम करो, संतुलित आहार लो, उन दवाओं के सेवन से बचो जिनसे नुकसान का खतरा हो, शुगर को नियंत्रित रखो, नमक कम खाओ, वजन कंट्रोल में रखो और पानी पर्याप्त मात्रा में पियो। 

Friday, March 29, 2019

टीबी के खिलाफ जंग क्या आतंकवाद के खिलाफ जंग से कम है?

राजीव शर्मा
गरीबी, स्वच्छता का अभाव, पोषक आहार की कमी और अज्ञान ने जो अभिशाप मानव को दिए हैं, उनमें एक टीबी भी है। हर साल की तरह इस साल भी टीबी के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए 24 मार्च को 'विश्व टीबी दिवस' मनाया गया। इस सिलसिले में तमाम सरकारी कार्यक्रम हुए। लेकिन ईमानदारी से यह नहीं बताया गया कि 2017 से लेकर अब तक टीबी के मामले कम करने में वांछित कामयाबी क्यों नहीं मिल पा रही। 

यह बताना इसलिए जरूरी है कि भारत ने 2017 में कार्य-योजना बनाई थी कि 2025 तक देश में टीबी उन्मूलन का लक्ष्य हासिल करना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की परिभाषा के मुताबिक जब दस लाख की आबादी में एक से भी कम टीबी का मरीज रह जाए, तो इसे टीबी का उन्मूलन माना जाता है। विगत वर्ष के आंकड़े हैं कि देश में टीबी के नए-पुराने 21.5 लाख मरीज दर्ज थे। इसका मतलब है हर दस लाख की आबादी के बीच 165 टीबी मरीज। 

क्या मौजूदा नीतियों से अगले छह साल में टीबी उन्मूलन का घोषित लक्ष्य पाया जा सकेगा-
यानि दस लाख में एक मरीज
?

तमाम नई एंटीबायोटिक दवाओं के ईजाद के बावजूद, टीबी रोग अभी भी दुनिया में मौत की दस सबसे बड़ी वजहों में से एक बना हुआ है। टीबी बैक्टीरिया के एंटीबायोटिक्स के खिलाफ प्रतिरोध-क्षमता विकसित कर लेने की वजह से साल-दर-साल इस रोग का इलाज करना मुश्किल होता जा रहा है।

भारत में हर साल टीबी के साढ़े आठ लाख नए मामले सामने आते हैं। पिछले साल ही इनमें से चार लाख पैंतीस हजार की मौत हो गई। प्रतिरोध-क्षमता विकसित कर लेने की वजह से अब इलाज के लिए कई-कई एंटीबायोटिक्स मिलाकर देना जरूरी हो गया है जिसे मल्टी-ड्रग-थेरेपी कहा जाता है। लेकिन चिंताजनक बात यह कि टीबी के बैक्टीरिया (माइकोबैक्टीरियम टूबरकुलोसिस) ने मल्टी-ड्रग-थेरेपी के खिलाफ भी प्रतिरोधिता विकसित कर ली है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ वर्ष 2016 में भारत में मल्टी ड्रग रेजिस्टेंस के एक लाख 47 हजार मामले मिले।

इसलिए कुछ लोग सही पूछते हैं कि टीबी के खिलाफ जंग क्या आतंकवाद के खिलाफ जंग से कम है!

Wednesday, March 27, 2019

क्या 'आरओ' से स्वच्छ किया पेयजल स्वास्थ्य के लिए होता है खतरनाक ?

राजीव शर्मा और बोधि श्री 
यह जागरूकता तो बढ़ी है कि पेयजल ठीक न हो तो बीमार होने का खतरा रहता है। इसका एक नतीजा यह कि पेय जल स्वच्छ करने के लिए रिवर्स ओस्मोसिस (आरओ) सिस्टम घर-घर में लगने लगे हैं। जहाँ इसकी जरूरत नहीं, वहां भी लोग इसे लगा लेते हैं। मानो यह कोई स्टेट्स सिंबल हो।बाजार में चार-पांच हजार रुपए से लेकर दो लाख रुपए तक की कीमत तक के 'आरओ' सिस्टम मौजूद हैं। 

जहाँ यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि घरों, दफ्तरों और सार्वजनिक स्थलों का पेयजल अस्वास्थ्यकर न हो, वहीँ यह समझना भी जरूरी है कि क्या 'आरओ' सिस्टम सचमुच में पेयजल को स्वास्थ्यकर बनाता है या 'आरओ' की प्रक्रिया से गुजरा जल स्वास्थ्य के लिए अधिक खतरनाक हो जाता है?

पहले यह जानना जरूरी है कि पेयजल में अस्वच्छता से तात्पर्य क्या है? जल में कई तरह की अशुद्धियाँ होती हैं जिनमें  जिनमें सबसे खतरनाक अशुद्धि होती है, बीमार करने वाले वायरस, बैक्टीरिया, एलगी, पैरासाइट आदि  की मौजूदगी।  वायरस और बैक्टीरिया बहुत सूक्ष्म होते हैं, उनमें से अधिकांश आरओ सिस्टम से हटाए जा सकते हैं ? पर सभी नहीं। इसलिए बहुत से आरओ सिस्टम में वायरस या बैक्टीरिया को खत्म करने के लिए एक अतिरिक्त उपाय के रूप में अल्ट्रा वाइलट किरणें पैदा करने वाली युक्ति लगाई जाती है जो वायरस और बैक्टीरिया को मार देती हैं। वैसे, इनसे निपटने के लिए तो पानी को ठीक से उबालना काफी है।

पेयजल की दूसरी बड़ी अशुद्धि मिट्टी, कीटनाशकों के अवशिष्ट सहित आर्सेनिक, फ्लोराइड, क्लोराइड जैसे तमाम किस्म के रसायनों व अनेक हानिकारक खनिज कणों की मौजूदगी के रूप में होती है। मोटे खनिज कणों को सामान्य फिलटरों से दूर किया जा सकता है लेकिन जब कण बहुत बारीक़ हों तो वे फिल्टरों से भी गुजर जाते हैं। उन्हें हटाने के काम को 'आरओ' सिस्टम बेहतरीन तरीके से करते हैं। 

यह जानना जरूरी है कि जहां बहुत से खनिज बीमारियां न्योतते हैं तो कुछ खनिज ऐसे भी होते हैं जो स्वास्थ्य के लिए अत्यंत जरूरी होते हैं। लेकिन 'आरओ' सिस्टम कोई भेदभाव नहीं करता, वह एक आकार तक के अच्छे और ख़राब सभी कणों को दूर कर देता है।

पानी में लेड, मरकरी, कॉपर, अल्मुनियम, लोहा, मैग्नीशियम, सोडियम, कैल्शियम, सिलिका आदि तमाम तरह के खनिज तत्व व इनसे बने यौगिक मौजूद होते हैं। इनमें से कई तो तरह-तरह की बीमारी करते हैं जैसे सीसा दिमागी को नुकसान पहुंचाता है तो पारा शरीर के जोड़ों में जलन पैदा करता है। लेकिन बहुत से खनिज जैसे लोहा, मैग्नीशियम, कैल्शियम और कॉपर आदि स्वास्थ्य के लिए जरूरी होते हैं। लेकिन चूंकि 'आरओ' सिस्टम इन हितकर खनिजों को भी हटा देते हैं, इससे शरीर में इन जरूरी खनिजों (मिनरल्स) की कमी हो जाती है।

आज जरूरी है कि मेडिकल एसोसिएशन आदि  इस बारे में जनता को जागरूक बनाएं और उचित समाधान सुझाने का अभियान शुरू करें। कुछ कंपनियों ने ऐसे 'आरओ' बाजार में उतारे हैं जो जल को स्वच्छ करने के बाद उसमें जरूरी खनिजों को मिलाते हैं। लेकिन जानकार लोग बताते है कि ऐसी कंपनियों के दावों में अनेक पेंच हैं। इस मामले में विज्ञापन में किये दावों पर भरोसा नहीं किया जा सकता।        

Friday, March 22, 2019

भारत में कैसे निपटते हैं लोग मनोरोगों से !

 राजीव शर्मा

भारत में मनोरोग भीषण समस्या है। रोगियों की संख्या बढ़ रही है।  विश्व स्वास्थ्य संगठन का कुछ साल पहले आकलन था कि  2020 तक भारत में भारत की 20 प्रतिशत आबादी किसी न किसी मानसिक बीमारी की गिरफ्त में होगी। लेकिन इलाज करने वाले योग्य डॉक्टरों का भीषण अभाव तो है ही, इस मामले में जागरूकता की भी भारी कमी है। 
यदि ऐसा न होता तो मनोरोग के नब्बे फीसदी मामलों का समाधान तो बेहतर सामाजिक संबंधों से ही हो जाता। चिकित्सीय भाषा में इसे कॉउंसलिंग कहा जाता है। देखा गया है कि प्राइवेट अस्पतालों में लोग सीधे डॉक्टरों तक तो पहुंच जाते हैं लेकिन कॉउंसलर तक नहीं पहुंच पाते। इसकी वजह यह है कि जितनी फीस डॉक्टर लेता है, उतना ही चढ़ावा कॉउंसलर को भी चढ़ाना पड़ता है।

प्रशिक्षित डॉक्टरों के बजाय दिल्ली जैसे शहरों में भी तमाम जगह मनोरोगों का इलाज करने वाले ओझाओं के डेरे देखे जा सकते हैं। कोई झाड़-फूंक से इसका इलाज करता नज़र आता है तो कोई इसके लिए हवन कराने का सुझाव देता है। इस मामले में अंधविश्वासों का बोलबाला है। छोटे कस्बों और गांवों से तो ऐसी ख़बरें भी आती रहती हैं कि किसी मनोरोगी को प्रेत या डायन बताकर उसकी हत्या ही कर दी गई। ऐसे सामाजिक संगठन या सामाजिक कार्यकर्ता न के बराबर हैं जो ऐसे मामलों में मनोरोगियों का सही मार्गदर्शन कर सकें।

देश भर में अच्छे मानसिक स्वास्थ्य अस्पताल खोलने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं हुए हैं। देहाती इलाकों में बहुत बड़ी संख्या में मानसिक रोगी हैं। उनमें से बहुत लोगों की चिकित्सा ऐसे मंदिरों तक सीमित है जहां मनोरोगियों को जंजीरों से बांधकर रखा जाता है। हाल ही में यह खबर अख़बारों का हिस्सा बनी कि एक बड़े मंदिर से ऐसे बहुत सारे लोगों को आजाद कराया गया जिन्हें मनोरोग के नाम पर बांधकर रखा गया था। मनोरोगियों पर बढ़ते अत्याचारों को देखते हुए भारत में 2015 में नई मानसिक स्वास्थ्य नीति बनाई  गई।

इससे पहले आज़ाद भारत में पहला प्रयास 1987 में हुआ था लेकिन मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987 में अनेक कमियां थीं जिनकी वजह से यह कभी लागू नहीं हो पाया। इस अधिनियम की एक बड़ी कमी यह थी कि इसके अंतर्गत आत्महत्या की कोशिश धारा 309 के तहत दंडनीय जुर्म बना हुआ था। इसका सीधा-सीधा मतलब यह था कि यदि कोई मनोरोगी अपनी बीमारी की गंभीरता के चलते आत्महत्या जैसा प्रयास कर बैठे तो उसके बाद वह अस्पतालों के साथ अदालतों के भी चक्कर लगाने को मजबूर हो जाए। अब नई स्वास्थ्य नीति और अधिनियम में इसे अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है।

मनोरोगियों के बारे में एक अजीब बात यह कि मनोरोगी का जब एक बार इलाज शुरू हो जाता है, तो वह पूरी तरह दूसरों पर निर्भर बना दिया जाता है। उसे हमेशा यही समझाया जाता है कि वह अपने या अपने इलाज के बारे में कोई निर्णय नहीं ले सकता। ऐसे में उससे और उसके परिवार के साथ इलाज के नाम पर कोई कितना भी खिलवाड़ कर सकता है। किसी परिवार में यदि कोई मानसिक रोगी होता है तो उससे भी घर के लोग शायद ही कभी इस बारे में चर्चा करते हों कि उसकी वास्तविक समस्या क्या है और परिवार खुद अपने स्तर पर उसकी क्या मदद कर सकता है। नई स्वास्थ्य नीति और अधिनियम में हालात को बदलने की कोशिश की गई है।

नई मानसिक स्वास्थ्य नीति के तहत मानसिक स्वाथ्य सेवा  अधिनियम, 2017 बनाया गया जो 29 मई, 2018 से लागू है। लेकिन इसको लागू करने का काम जिस अनमने ढंग से चल रहा है, उसे देखते हुए धरातल पर कोई परिवर्तन आने में सालों लग जाएंगे। 

Wednesday, March 20, 2019

कैंसर जैसे ही खतरनाक हैं मनोरोग

राजीव शर्मा 
तरनाक बीमारी कैंसर के नाम से तो हम घबराते हैं लेकिन मानसिक बीमारी गंभीर भी हो तो हम हंसी में उड़ा देते हैं। हकीकत यह है कि अनेक मानसिक बीमारी ऐसी हैं जो कैंसर जितनी ही खतरनाक या उससे भी ज्यादा पीड़ादायक साबित हो सकती है। मानसिक बीमारियां कैंसर, मधुमेह या ह्रदय रोग सेअधिक आम हैं। 18 वर्ष से अधिक उम्र के सभी अमेरिकियों में से 26 फीसदी से अधिक ऐसे हैं जो किसी न किसी मानसिक बीमारी के दायरे में आते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की वर्ष 2010 की एक रिपोर्ट में मानसिक बीमारियों के खर्च का वार्षिक अनुमान साढ़े छह ट्रिलियन डॉलर बताया गया है। 2030 तक इसमें भारी  बढ़ोतरी का अनुमान है। 
विश्व स्वास्थ्य संगठन के जुटाए तथ्य बताते हैं कि दुनिया की करीब आधी आबादी अपने आत्मसम्मान, रिश्तों और रोजमर्रा की जिंदगी के काम से जुड़े मसलों को लेकर मानसिक बीमारियों से प्रभावित है। व्यक्ति का भावनात्मक स्वास्थ्य, शारीरिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है। लंबे और स्वस्थ जीवन के लिए अच्छे मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखना जरूरी है। 
अच्छा मानसिक स्वास्थ्य जीवन को बढ़ा सकता है जबकि खराब मानसिक स्वास्थ्य जीवन जीने के आनंद को कम करता है। कई बार आम जीवन में हम जिन लोगों को सड़कों पर नग्न और दुरावस्था में घूमता देखते हैं, वे और कोई नही, ऐसे मनोरोगी ही होते हैं जिनका इलाज नहीं हो पाता। 
तमाम विशेषज्ञों का मानना है कि इस किस्म के भावनात्मक व्यवहार बढ़ रहे हैं जिनका असर तनाव के रूप में सामने आता है और अंततः वह शारीरिक स्वास्थ्य पर भी बुरा असर डालता है। एक शोध का परिणाम यह है कि जो लोग अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त नहीं कर पाते, वे  शराब और नशीली दवाओं की लत या बर्बरतापूर्ण जीवन में फंस जाते हैं। बहुत से वयस्क और बच्चे किसी वजह से अपने किसी काम की वजह से कलंकित महसूस करते हैं तो उनकी मानसिक मुश्किलें दूसरों से कहीं ज्यादा बड़ी हो जाती हैं।