राजीव शर्मा
भारत में मनोरोग भीषण
समस्या है। रोगियों की संख्या बढ़ रही है। विश्व
स्वास्थ्य संगठन का कुछ साल पहले आकलन था कि
2020 तक भारत में भारत की 20 प्रतिशत आबादी किसी न किसी मानसिक बीमारी की गिरफ्त
में होगी। लेकिन इलाज करने वाले योग्य डॉक्टरों का भीषण अभाव तो है ही, इस मामले में
जागरूकता की भी भारी कमी है।
यदि ऐसा न होता तो मनोरोग के नब्बे फीसदी मामलों का समाधान तो बेहतर सामाजिक संबंधों से ही हो जाता। चिकित्सीय भाषा में इसे कॉउंसलिंग कहा जाता है। देखा गया है कि प्राइवेट अस्पतालों में लोग सीधे डॉक्टरों तक तो पहुंच जाते हैं लेकिन कॉउंसलर तक नहीं पहुंच पाते। इसकी वजह यह है कि जितनी फीस डॉक्टर लेता है, उतना ही चढ़ावा कॉउंसलर को भी चढ़ाना पड़ता है।
यदि ऐसा न होता तो मनोरोग के नब्बे फीसदी मामलों का समाधान तो बेहतर सामाजिक संबंधों से ही हो जाता। चिकित्सीय भाषा में इसे कॉउंसलिंग कहा जाता है। देखा गया है कि प्राइवेट अस्पतालों में लोग सीधे डॉक्टरों तक तो पहुंच जाते हैं लेकिन कॉउंसलर तक नहीं पहुंच पाते। इसकी वजह यह है कि जितनी फीस डॉक्टर लेता है, उतना ही चढ़ावा कॉउंसलर को भी चढ़ाना पड़ता है।
प्रशिक्षित डॉक्टरों
के बजाय दिल्ली जैसे शहरों में भी तमाम जगह मनोरोगों का इलाज करने वाले ओझाओं के डेरे
देखे जा सकते हैं। कोई झाड़-फूंक से इसका इलाज करता नज़र आता है तो कोई इसके लिए हवन
कराने का सुझाव देता है। इस मामले में अंधविश्वासों का बोलबाला है। छोटे कस्बों और
गांवों से तो ऐसी ख़बरें भी आती रहती हैं कि किसी मनोरोगी को प्रेत या डायन बताकर उसकी
हत्या ही कर दी गई। ऐसे सामाजिक संगठन या सामाजिक कार्यकर्ता न के बराबर हैं जो ऐसे
मामलों में मनोरोगियों का सही मार्गदर्शन कर सकें।
देश भर में अच्छे मानसिक
स्वास्थ्य अस्पताल खोलने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं हुए हैं। देहाती इलाकों में बहुत
बड़ी संख्या में मानसिक रोगी हैं। उनमें से बहुत लोगों की चिकित्सा ऐसे मंदिरों तक सीमित
है जहां मनोरोगियों को जंजीरों से बांधकर रखा जाता है। हाल ही में यह खबर अख़बारों का
हिस्सा बनी कि एक बड़े मंदिर से ऐसे बहुत सारे लोगों को आजाद कराया गया जिन्हें मनोरोग
के नाम पर बांधकर रखा गया था। मनोरोगियों पर बढ़ते अत्याचारों को देखते हुए भारत में
2015 में नई मानसिक स्वास्थ्य नीति बनाई गई।
इससे पहले आज़ाद भारत
में पहला प्रयास 1987 में हुआ था लेकिन मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987 में अनेक कमियां
थीं जिनकी वजह से यह कभी लागू नहीं हो पाया। इस अधिनियम की एक बड़ी कमी यह थी कि इसके
अंतर्गत आत्महत्या की कोशिश धारा 309 के तहत दंडनीय जुर्म बना हुआ था। इसका सीधा-सीधा
मतलब यह था कि यदि कोई मनोरोगी अपनी बीमारी की गंभीरता के चलते आत्महत्या जैसा प्रयास
कर बैठे तो उसके बाद वह अस्पतालों के साथ अदालतों के भी चक्कर लगाने को मजबूर हो जाए।
अब नई स्वास्थ्य नीति और अधिनियम में इसे अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है।
मनोरोगियों के बारे में
एक अजीब बात यह कि मनोरोगी का जब एक बार इलाज शुरू हो जाता है, तो वह पूरी तरह दूसरों
पर निर्भर बना दिया जाता है। उसे हमेशा यही समझाया जाता है कि वह अपने या अपने इलाज
के बारे में कोई निर्णय नहीं ले सकता। ऐसे में उससे और उसके परिवार के साथ इलाज के
नाम पर कोई कितना भी खिलवाड़ कर सकता है। किसी परिवार में यदि कोई मानसिक रोगी होता
है तो उससे भी घर के लोग शायद ही कभी इस बारे में चर्चा करते हों कि उसकी वास्तविक
समस्या क्या है और परिवार खुद अपने स्तर पर उसकी क्या मदद कर सकता है। नई स्वास्थ्य
नीति और अधिनियम में हालात को बदलने की कोशिश की गई है।
नई मानसिक स्वास्थ्य
नीति के तहत मानसिक स्वाथ्य सेवा अधिनियम,
2017 बनाया गया जो 29 मई, 2018 से लागू है। लेकिन इसको लागू करने का काम जिस अनमने
ढंग से चल रहा है, उसे देखते हुए धरातल पर कोई परिवर्तन आने में सालों लग जाएंगे।
good articles
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