राजीव शर्मा / बोधि श्री
मलेरिया का मतलब सिर्फ तेज बुखार,कंपकंपी और कमजोरी ही नहीं, बिगड़ जाए तो वह जानलेवा भी साबित हो सकता है। लगभग हर मिनट दुनिया में एक जान, मलेरिया से जाती है। अफ्रीकी देशों में तो यह बीमारी बच्चों पर कहर बनकर बरसती है। अफ्रीका में हर साल ढाई लाख बच्चे मलेरिया की वजह से मौत के मुंह चले जाते हैं। पूरी दुनिया में मलेरिया से होने वाली मौतों में 61 फीसदी बच्चे ही होते हैं।
गरीबों की इस बीमारी से निपटने के लिए अनुसन्धान-राशि की किल्लत तो हमेशा रही , फिर भी वैज्ञानिक इससे बचाव के असरदार तरीके ढूंढने में जुटे रहे हैं। इसी कड़ी में वे 32 साल के अनवरत प्रयास के बाद मलेरिया का पहला टीका 'RTS,S' इस स्तर तक लाने में कामयाब हुए कि इसे अब बच्चों में बृहत परीक्षण के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। भारत सहित दुनिया में मलेरिया के कुछ और टीके, विकास के विविध चरणों में चल रहे हैं।
सारी दुनिया के मलेरिया विशेषज्ञों की नज़र इस बृहत परीक्षण के नतीजों पर रहेगी। टीके की शुरूआत 'वर्ल्ड मलेरिया डे' पर अफ्रीकी देश 'मलावी' से हुई है। इसके बाद कीनिया और घाना में यह टीकाकरण अभियान शुरू होगा। कुल मिलाकर अफ्रीका के 360, 000 बच्चों को यह टीका लगाया जाएगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक सन 2009 और 2014 के बीच इसके सीमित स्तर पर परीक्षण हो चुके थे और यह मलेरिया के दस में से चार मामलों में जान बचाने में कामयाब हुआ। मतलब, हर दस में से छह के लिए जान का खतरा बना ही रहेगा, यानी यानी शत-प्रतिशत बचाव के लिए अभी बहुत काम बाकी है।
टीकाकरण का यह कार्यक्रम दो साल से कम उम्र के बच्चों के लिए है। उन्हें इंजेक्शन के जरिए यह टीका दिया जाएगा। भारत में भी मलेरिया से मौतें होती हैं। मलेरिया के प्रकोप के मामले में भारत को विश्व में तीसरे स्थान पर गिना जाता है। 2018 में 399,134 मलेरिया के मामले सामने आये और 85 मलेरिया से हुई मौतों के। पर चूँकि मलेरिया के मरीजों को रिकॉर्ड में लाने की अनिवार्यता नहीं, इसलिए निजी चिकित्सक इस बात को सामने लाते ही नहीं कि उन्होंने मलेरिया के मरीज की चिकित्सा की। नतीजा यह कि 8 प्रतिशत मामले ही दर्ज हो पाते हैं।
भारत में चिंता की बात यह भी है कि मच्छर मारने वाली दवाएं बेअसर होने लगी हैं। मलेरिया के मरीजों की चिकित्सा में काम आने पुरानी दवा क्लोरोक्वीन बहुत पहले बेअसर हो चुकी है, नई दवाइयां भी कहीं बेअसर न हो जाएं, इसकी चिंता भी बनी रहती है।
भारत में 'जांच करो, इलाज करो और नजर रखो' प्रोग्राम सफल रहा है। लेकिन नई चिंताओं के मद्देनज़र भारत के वैज्ञानिकों को स्वदेशी टीके के विकास का काम तेज करना चाहिए। यह तभी हो सकता है जब दवा उद्योग या सरकार अनुसन्धान के लिए समुचित धन की व्यवस्था करे।
मलेरिया का मतलब सिर्फ तेज बुखार,कंपकंपी और कमजोरी ही नहीं, बिगड़ जाए तो वह जानलेवा भी साबित हो सकता है। लगभग हर मिनट दुनिया में एक जान, मलेरिया से जाती है। अफ्रीकी देशों में तो यह बीमारी बच्चों पर कहर बनकर बरसती है। अफ्रीका में हर साल ढाई लाख बच्चे मलेरिया की वजह से मौत के मुंह चले जाते हैं। पूरी दुनिया में मलेरिया से होने वाली मौतों में 61 फीसदी बच्चे ही होते हैं।
गरीबों की इस बीमारी से निपटने के लिए अनुसन्धान-राशि की किल्लत तो हमेशा रही , फिर भी वैज्ञानिक इससे बचाव के असरदार तरीके ढूंढने में जुटे रहे हैं। इसी कड़ी में वे 32 साल के अनवरत प्रयास के बाद मलेरिया का पहला टीका 'RTS,S' इस स्तर तक लाने में कामयाब हुए कि इसे अब बच्चों में बृहत परीक्षण के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। भारत सहित दुनिया में मलेरिया के कुछ और टीके, विकास के विविध चरणों में चल रहे हैं।
Photo by Thomas Kinto on Unsplash
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सारी दुनिया के मलेरिया विशेषज्ञों की नज़र इस बृहत परीक्षण के नतीजों पर रहेगी। टीके की शुरूआत 'वर्ल्ड मलेरिया डे' पर अफ्रीकी देश 'मलावी' से हुई है। इसके बाद कीनिया और घाना में यह टीकाकरण अभियान शुरू होगा। कुल मिलाकर अफ्रीका के 360, 000 बच्चों को यह टीका लगाया जाएगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक सन 2009 और 2014 के बीच इसके सीमित स्तर पर परीक्षण हो चुके थे और यह मलेरिया के दस में से चार मामलों में जान बचाने में कामयाब हुआ। मतलब, हर दस में से छह के लिए जान का खतरा बना ही रहेगा, यानी यानी शत-प्रतिशत बचाव के लिए अभी बहुत काम बाकी है।
टीकाकरण का यह कार्यक्रम दो साल से कम उम्र के बच्चों के लिए है। उन्हें इंजेक्शन के जरिए यह टीका दिया जाएगा। भारत में भी मलेरिया से मौतें होती हैं। मलेरिया के प्रकोप के मामले में भारत को विश्व में तीसरे स्थान पर गिना जाता है। 2018 में 399,134 मलेरिया के मामले सामने आये और 85 मलेरिया से हुई मौतों के। पर चूँकि मलेरिया के मरीजों को रिकॉर्ड में लाने की अनिवार्यता नहीं, इसलिए निजी चिकित्सक इस बात को सामने लाते ही नहीं कि उन्होंने मलेरिया के मरीज की चिकित्सा की। नतीजा यह कि 8 प्रतिशत मामले ही दर्ज हो पाते हैं।
भारत में चिंता की बात यह भी है कि मच्छर मारने वाली दवाएं बेअसर होने लगी हैं। मलेरिया के मरीजों की चिकित्सा में काम आने पुरानी दवा क्लोरोक्वीन बहुत पहले बेअसर हो चुकी है, नई दवाइयां भी कहीं बेअसर न हो जाएं, इसकी चिंता भी बनी रहती है।
भारत में 'जांच करो, इलाज करो और नजर रखो' प्रोग्राम सफल रहा है। लेकिन नई चिंताओं के मद्देनज़र भारत के वैज्ञानिकों को स्वदेशी टीके के विकास का काम तेज करना चाहिए। यह तभी हो सकता है जब दवा उद्योग या सरकार अनुसन्धान के लिए समुचित धन की व्यवस्था करे।