राजीव शर्मा और बोधि श्री
चुनाव का मौसम है। लेकिन न तो नेता स्वास्थ्य सेवा में सुधार को बड़ा मुद्दा मानते, न पार्टियां। और न शायद जनता।
ऐसी जनता के लिए 'विश्व स्वास्थ्य दिवस' आता है और चला जाता है। हालात में कोई बदलाव नहीं आते। आज भारत में जगह जगह 'विश्व स्वास्थ्य दिवस' मनाया गया। पर इस तरह जैसे यह कोई रस्म थी,जो पूरी हुई। फिर भी उन लोगों को जिन्हें अपने और देश के लोगों के स्वास्थ्य की चिंता है, स्वास्थ्य दिवस पर जमीनी हकीकत पर गौर करना चाहिए।
भारत की 'नेशनल हेल्थ प्रोफाइल-2018' रिपोर्ट के मुताबिक देश में डायबिटीज और हाइपरटेंशन (उच्च रक्तचाप) के रोगियों की संख्या बहुत अधिक है। कैंसर के मरीजों की तादाद बढ़ रही है। आत्महत्या करने वालों की संख्या भी बढ़ रही है।
देशव्यापी एक सर्वे के मुताबिक देश की 90 फीसदी आबादी किसी-न-किसी तरह के तनाव से ग्रस्त है। 50 फीसदी से ज्यादा नौकरीपेशा लोग भी तनाव से पीड़ित हैं। कुछ ही दिन पहले हुए एक शोध के अनुसार 90 फीसदी से ज्यादा लोग कुदरती और भरपूर नींद नहीं ले पाते। इसके बावजूद महज 2 फीसदी से भी कम लोग नींद की समस्या के लिए डॉक्टर की सलाह लेते हैं। न जाने कितने लोगों को गंभीर रोगों का पता तब चलता है जब वे हमेशा के लिए बिस्तर पकड़ चुके होते हैं।
वैसे, जितने लोग सुबह-शाम पार्कों में पहुंच रहे हैं या जूस की दुकानों पर दिखाई पड़ रहे हैं, उससे लगता है कि लोगों में स्वास्थ्य जागरूकता बढ़ी है। फिर भी मरीजों या रोगियों की तादाद में इजाफा क्यों हो रहा है ? इसका कुछ दोष देश में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी को जाता है। तो बहुत कुछ, अधिकाधिक खर्चीली होती जा रही है चिकित्सा को, जिसकी वजह से बहुत बड़ी आबादी चिकित्सा टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में हो रहे क्रांतिकारी विकास का कोई लाभ नहीं ले पाती।
रोगों में वृद्धि का एक बड़ा कारण भयानक प्रदूषण है चाहे फिर वह प्रदूषण वायु का हो, या जल का। सिंचाई के पानी का प्रदूषण खाद्य सामग्रियों तक की गुणवत्ता खराब कर रहा है। फलों आदि का उत्पादन बढ़ाने के लिए ऑक्सीटोसिन का दुरुपयोग हो रहा है। इसी तरह से पशुओं को अनैतिक ढंग से एंटीबायोटिक्स देने से मीट की गुणवत्ता ख़राब हो रही है। दूध तक भरोसेमंद नहीं रह गया।
जहाँ तक स्वास्थ्य सुविधाओं की बात है, भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट ही देश में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी की पोल खोलने के लिए काफी है। साल में एक व्यक्ति के स्वास्थ्य पर महज 1,112 रुपये खर्च करके भारत सारी दुनिया में स्वास्थ्य पर सबसे कम सरकारी खर्च करने वाले देशों में से एक हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत में सरकारी स्तर पर जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का महज 1.02 फीसदी खर्च किया जाता है जो छोटे-छोटे पड़ोसी देशों नेपाल, श्रीलंका, भूटान और बांग्लादेश से भी कम है। चिकित्सा का अधिकांश व्यय जनता को खुद करना पड़ता है। स्वास्थ्य बीमा के अंतर्गत भी केवल 34 प्रतिशत जनता आती है।
इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 11,082 लोगों पर महज एक एलोपैथिक डॉक्टर है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय मानकों के अनुसार एक हजार लोगों पर एक डाक्टर होना चाहिए। जैसे-जैसे आबादी बढ़ रही है, मरीजों और डॉक्टरों की संख्या के बीच की खाई बढ़ती जा रही है। बिहार जैसे गरीब राज्यों की हालत तो बदतर है। वहां 28,391 लोगों पर महज एक एलोपैथिक डॉक्टर है।
भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता की दृष्टि से ग्रामीण क्षेत्रों की हालत बेहद ख़राब है। हमारे सिर्फ दो फीसदी डॉक्टर ही गॉंवों में हैं जबकि हमारी 68 फीसदी आबादी वहां निवास करती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2016 में उजागर किया था कि भारत में डॉक्टरों की कमी के चलते उनकी जगह झोलाछाप डॉक्टरों ने ले ली है। यह भी कि भारत में प्रैक्टिस कर रहे एक तिहाई डॉक्टरों के पास कोई डिग्री ही नहीं है।
फिर भी हम वोट देते समय इस बात को ध्यान में नहीं रखेंगे। क्योंकि हम हैं हिंदुस्तानी।
चुनाव का मौसम है। लेकिन न तो नेता स्वास्थ्य सेवा में सुधार को बड़ा मुद्दा मानते, न पार्टियां। और न शायद जनता।
ऐसी जनता के लिए 'विश्व स्वास्थ्य दिवस' आता है और चला जाता है। हालात में कोई बदलाव नहीं आते। आज भारत में जगह जगह 'विश्व स्वास्थ्य दिवस' मनाया गया। पर इस तरह जैसे यह कोई रस्म थी,जो पूरी हुई। फिर भी उन लोगों को जिन्हें अपने और देश के लोगों के स्वास्थ्य की चिंता है, स्वास्थ्य दिवस पर जमीनी हकीकत पर गौर करना चाहिए।
भारत की 'नेशनल हेल्थ प्रोफाइल-2018' रिपोर्ट के मुताबिक देश में डायबिटीज और हाइपरटेंशन (उच्च रक्तचाप) के रोगियों की संख्या बहुत अधिक है। कैंसर के मरीजों की तादाद बढ़ रही है। आत्महत्या करने वालों की संख्या भी बढ़ रही है।
देशव्यापी एक सर्वे के मुताबिक देश की 90 फीसदी आबादी किसी-न-किसी तरह के तनाव से ग्रस्त है। 50 फीसदी से ज्यादा नौकरीपेशा लोग भी तनाव से पीड़ित हैं। कुछ ही दिन पहले हुए एक शोध के अनुसार 90 फीसदी से ज्यादा लोग कुदरती और भरपूर नींद नहीं ले पाते। इसके बावजूद महज 2 फीसदी से भी कम लोग नींद की समस्या के लिए डॉक्टर की सलाह लेते हैं। न जाने कितने लोगों को गंभीर रोगों का पता तब चलता है जब वे हमेशा के लिए बिस्तर पकड़ चुके होते हैं।
वैसे, जितने लोग सुबह-शाम पार्कों में पहुंच रहे हैं या जूस की दुकानों पर दिखाई पड़ रहे हैं, उससे लगता है कि लोगों में स्वास्थ्य जागरूकता बढ़ी है। फिर भी मरीजों या रोगियों की तादाद में इजाफा क्यों हो रहा है ? इसका कुछ दोष देश में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी को जाता है। तो बहुत कुछ, अधिकाधिक खर्चीली होती जा रही है चिकित्सा को, जिसकी वजह से बहुत बड़ी आबादी चिकित्सा टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में हो रहे क्रांतिकारी विकास का कोई लाभ नहीं ले पाती।
रोगों में वृद्धि का एक बड़ा कारण भयानक प्रदूषण है चाहे फिर वह प्रदूषण वायु का हो, या जल का। सिंचाई के पानी का प्रदूषण खाद्य सामग्रियों तक की गुणवत्ता खराब कर रहा है। फलों आदि का उत्पादन बढ़ाने के लिए ऑक्सीटोसिन का दुरुपयोग हो रहा है। इसी तरह से पशुओं को अनैतिक ढंग से एंटीबायोटिक्स देने से मीट की गुणवत्ता ख़राब हो रही है। दूध तक भरोसेमंद नहीं रह गया।
जहाँ तक स्वास्थ्य सुविधाओं की बात है, भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट ही देश में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी की पोल खोलने के लिए काफी है। साल में एक व्यक्ति के स्वास्थ्य पर महज 1,112 रुपये खर्च करके भारत सारी दुनिया में स्वास्थ्य पर सबसे कम सरकारी खर्च करने वाले देशों में से एक हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत में सरकारी स्तर पर जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का महज 1.02 फीसदी खर्च किया जाता है जो छोटे-छोटे पड़ोसी देशों नेपाल, श्रीलंका, भूटान और बांग्लादेश से भी कम है। चिकित्सा का अधिकांश व्यय जनता को खुद करना पड़ता है। स्वास्थ्य बीमा के अंतर्गत भी केवल 34 प्रतिशत जनता आती है।
इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 11,082 लोगों पर महज एक एलोपैथिक डॉक्टर है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय मानकों के अनुसार एक हजार लोगों पर एक डाक्टर होना चाहिए। जैसे-जैसे आबादी बढ़ रही है, मरीजों और डॉक्टरों की संख्या के बीच की खाई बढ़ती जा रही है। बिहार जैसे गरीब राज्यों की हालत तो बदतर है। वहां 28,391 लोगों पर महज एक एलोपैथिक डॉक्टर है।
भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता की दृष्टि से ग्रामीण क्षेत्रों की हालत बेहद ख़राब है। हमारे सिर्फ दो फीसदी डॉक्टर ही गॉंवों में हैं जबकि हमारी 68 फीसदी आबादी वहां निवास करती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2016 में उजागर किया था कि भारत में डॉक्टरों की कमी के चलते उनकी जगह झोलाछाप डॉक्टरों ने ले ली है। यह भी कि भारत में प्रैक्टिस कर रहे एक तिहाई डॉक्टरों के पास कोई डिग्री ही नहीं है।
फिर भी हम वोट देते समय इस बात को ध्यान में नहीं रखेंगे। क्योंकि हम हैं हिंदुस्तानी।
पिछली साल की तरह इस साल भी 'विश्व स्वास्थ्य दिवस' का विषय
ReplyDeleteथा सबके लिए स्वास्थ्य सेवा (universal health coverage) लेकिन हमारे देश में
जो अमीर हैं, वे ही स्वास्थ्य सेवा ले पाते हैं। गरीब लोग तो, विशेषकर गावों में, झोला छाप
डाक्टरों पर ही निर्भर हैं।
Despite inadequate healthcare facilities,India’s maternal mortality ratio in 2015 was 174 deaths per lakh live births which is much down from 448 in 1994 and globally it was 216 in 2015.
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