बोधि श्री / राजीव शर्मा
विश्व
प्रसिद्ध अकादमिक विज्ञान पत्रिका 'साइंस' में 7 मार्च , 2019 को छपे चार्ल्स पिलर
के एक लेख ने चिकित्सा की दुनिया में तहलका मचा दिया है। लेख से मूल सवाल उभरता है
कि क्या पैसे की खातिर लाखों-करोड़ों की संख्या में स्वस्थ लोगों को मरीजों की
केटेगरी में धकेला जा सकता है?
अमेरिका
में ऐसा ही हुआ। यह ऐसी वारदात है जिसमें दवा कंपनियों, डायग्नोस्टिक कंपनियों,
जांच उपकरण बनाने और बेचने वाली कंपनियों और डाक्टरों के तो मजे आ गए लेकिन इसने
करोड़ों, सही संख्या बताएं, तो अकेले अमेरिका में सात करोड़ स्वस्थ लोगों को न केवल
तनाव में धकेल दिया, बल्कि उनकी जेब भी खासी हल्की करा दी।
यह कहानी
प्रतिष्ठित संस्था 'अमेरिकन डायबिटीज एसोसिएशन' (ADA) की है। अमेरिका में डायबिटीज
के बारे में देखभाल के मानक तय करने और निदान के उपायों की सिफारिशें करने की
जिम्मेदारी इसी के पास है। इसका लक्ष्य डायबिटीज की चिकित्सा, उसके लिए जरूरी
दिशानिर्देश जारी करना और समय-समय पर उनका मूल्यांकन करना है। इसमें बहुविषयक
योग्यता वाले शोधकर्मी शामिल होते हैं, इसलिए इनकी सिफारिशों का महत्व बहुत ज्यादा
आंका जाता है। अंततः इसकी सिफारिशों का सीधा असर आम मरीज के इलाज पर पड़ता है।
ADA ने 2009 में एक शब्द प्रचलित किया 'प्रीडाइबिटीज' और इसे अमेरिका के ही 'सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन' के साथ मिलकर खूब प्रचारित किया।
'प्रीडाइबिटीज'
शब्द से ध्वनि निकलती है कि ये वे लोग हैं जिन्हें 'डाइबिटीज' होने वाली है। तमाम
डाक्टरों ने भी इसे इसी रूप में लिया। पर वैज्ञानिक हकीकत यह थी कि साल में दो
प्रतिशत से भी कम संख्या में ये कथित 'प्रीडाइबेटिक' डाइबिटीज के रोगियों में
कन्वर्ट हो रहे थे।
इसी
संस्थान के पूर्व अध्यक्ष मेयर डैविडसन का कहना है कि इस प्रीडाइबेटिक वर्ग के 80
प्रतिशत लोगों को जिंदगी में कभी डायबिटीज नहीं होगी। जबकि उक्त दो संस्थाओं ने
ऐसा माहौल बनाया कि यदि व्यक्ति की 'प्रीडाइबिटीज' स्थिति को न थामा गया तो उसे
डायबिटीज जरूर होगी और जिसका नतीजा होगा अंधत्व, हार्ट अटैक और उसके सड़ चुके अंगों
तक को काटने तक की नौबत।
उधर, जन
स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत से संगठन मानते हैं कि डायबिटीज की
रोकथाम के लिए चिकित्सीय (clinical) उपाय की जगह जीवन शैली में बदलाव,अधिक चीनी
वाले पेयों को रोकने वाले क़ानून, बेहतर नगर नियोजन और समाज में तनाव पैदा करने
वाली परिस्थितियों में बदलाव लाने वाले कदम अधिक कारगर होते हैं।
विश्व
स्वास्थ्य संगठन और अन्य स्वास्थ्य संगठनों ने 'प्रीडाइबिटीज' को अलग बीमारी करार
देने को अनुचित बताया है। उनका यह भी मानना है कि डायबिटीज की मौजूदा दवाइयां
'प्रीडाइबिटीज' के मामले में कोई लाभ नहीं करतीं। दवा कंपनियां फिलहाल दर्जनों
दवाइयां आजमा रही हैं क्योंकि उन्हें दुनिया में कोई एक अरब ग्राहक सामने नज़र आ
रहे हैं।
'प्रीडाइबेटिक'
की स्क्रीनिंग के लिए HbA1C जाँच की जाती है जो तीन महीनों के दौरान रक्त में
ग्लूकोज़ की मात्रा के औसत की जानकारी देती है। पहले 'प्रीडाइबेटिक' उनको करार दिया
गया जिनकी HbA1C की माप
6 % या
6.1 % थी। लेकिन 'अमेरिकन डायबेटिक असोसिएशन' ने एक और कमाल किया। उसने
प्रीडाइबेटिक के लिए HbA1C माप की सीमा 6.1% से घटाकर 5.7% कर दी। इससे तो
रातोंरात मरीजों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हो गई।
जाहिर है
कि यदि अब 'प्रीडायबिटिक' लोगों को भी डायबिटीज के मरीजों की तरह दवाइयां खानी हैं
तो इससे दवा उद्योग को अरबों का फायदा है। 'साइंस' मैगज़ीन के उक्त लेख में उजागर
किया गया है कि ADA और इसके कुछ फिजिशियन 'प्रीडायबिटिक' लोगों के लिए दवा के
जरिये इलाज को जरूरी साबित करने के लिए फार्मा कंपनियों से अनुसंधान सहायता ले रहे
थे।
ADA ने
दवाओं की एक ऐसी भी सूची तैयार की जिसमें डायबिटीज के रोगियों की तरह
'प्रीडायबिटिक' लोगों के लिए भी वजन घटाने वाली दवाओं को शामिल किया गया। इन दवाओं
पर चल रहे शोध से यह पता चला है कि इनके गंभीर साइड इफेक्ट भी हैं।
लंदन
स्थित 'कोक्रेन लाइब्रेरी' की ओर से डायबिटीज पर 103 अध्ययनों की समीक्षा
से उजागर हुआ कि 59% 'प्रीडायबेटिक्स' ऐसे थे, जो एक से लेकर 11 साल में बिना किसी
ट्रीटमेंट के ठीक हो गए।
यह भी
उजागर हुआ कि जिस ग्रुप के लोग डाइबिटीज के लिए 'मेटफोर्मिन' नामक दवा ले रहे थे,
उनमें से 6.4 प्रतिशत लोग 6 साल के अंदर दवा लेने के बावजूद डायबिटीज ग्रस्त हो
गए। लेकिन जिस ग्रुप के लोगों ने केवल जीवन शैली में बदलाव किया और कोई दवा नहीं ली,
उनमें से उसी अवधि के दौरान केवल 5.3% लोग ही डाइबिटीज के रोगी
बने।
दुनिया
में अगर ADA की चली तो 'प्रिडाइबेटिक' लोगों को लम्बे समय तक, संभवतः पूरी जिंदगी
दवा लेनी पड़ेगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन को इस बारे में अविलम्ब एडवाइजरी जारी करना
चाहिए।
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