राजीव शर्मा और बोधि श्री
एक सीमा से ज्यादा शोर मानसिक और शारीरिक दोनों तरह के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। आदमी 80 डेसिबल तक की ध्वनि ही बर्दाश्त कर सकता है। इससे अधिक होने पर व्यक्ति बीमार होने लगता है। सीमा से अधिक शोर ध्वनि प्रदूषण कहलाता है जो हमारे दिल, दिमाग और कान, तीनों पर असर डालता है।
चिकित्सकों का मानना है कि लम्बे समय तक अगर बहुत अधिक शोर में रहना पड़े तो उससे कान के पर्दे को अपूरणीय क्षति पहुँचती है। एक वक्त ऐसा भी आता है जब सुनाई देना कम होते-होते एकदम बंद हो जाता है। बहुत बार इससे 'टिनिटस' नाम की बीमारी हो जाती है जिसमें हर समय कान से चिड़िया की चहचहाहट या सीटी बजने जैसी आवाज आने लगती है। तेज शोर का दिल पर भी असर पड़ता है और मानसिक समस्याएं भी पैदा करता है।
पर विकास के मौजूदा मॉडल में ध्वनि प्रदूषण से बचना मुश्किल है। ध्वनि प्रदूषण की नई-नई वजह पैदा हो रही हैं। वाहन हैं --कार , बस , ट्रक, ऑटो-रिक्शा, मेट्रो, रेल, मोटर साइकिल--सभी तो शोर करते हैं। जैसे-जैसे जनसंख्या और यातायात के साधन बढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे इनसे होने वाला शोर भी हदें लांघता जा रहा है। औद्योगिक विनिर्माण के लिए कारखाने हैं, वे जरूरी हैं, पर वे भी ध्वनि प्रदूषण करते हैं। घर के अंदर जरूरी उपकरण हैं, पंखा, कूलर, टीवी, एग्जॉस्ट, मिक्सी, वाशिंग मशीन--आप मानें न मानें, ये भी ध्वनि-प्रदूषण में योगदान करते हैं। जहाँ जहां भी बड़ी संख्या में लोग जमा होते हैं, कार्यालय,स्कूल, कॉलेज, बस स्टेंड और रेलवे स्टेशन, उनकी बकर-बकर का शोर भी कम नहीं होता। दिन के वक्त तमाम गतिविधियों से पैदा हो रहा शोर समग्र रूप से सीमा लांघता रहता है। लोग इसके आदी हो जाते हैं और पता नहीं चलता कि वे ध्वनि प्रदूषण की
मार झेल रहे हैं।
शादी ,धार्मिक आयोजनों, मेलों, पार्टियों में लाउड स्पीकर और डीजे जब घर के बगल में कान-फाड़ ढंग से बजते हैं, तो आयोजन में भाग लेने वाले बेशक आनंदित होते हों, पर आस पास के इलाकों के हजारों लोगों को बेचैनी होती है। विभिन्न त्यौहारों, उत्सवों, मेलों, सांस्कृतिक-वैवाहिक समारोहों आदि में पटाखे चलाने का चलन है। पटाखों के तेज धमाके तो ध्वनि प्रदूषण को बेहद खतरनाक स्तर तक बढ़ा देते हैं। यही बात प्रेशर हॉर्न के बारे में है।
जिन लोगों के मकान हवाई अड्डे के नजदीक हैं, वे जानते हैं कि कैसे विमान का शोर चिढ़ पैदा करता है। विमान जब उड़ने को होता है या उतरने को होता है तब वह आस पास की कालोनियों तक ही नहीं, करीब सौ वर्ग किलोमीटर के दायरे में शोर पहुंचा रहा होता है।
ध्वनि प्रदूषण से हो रहे नुकसान के बारे में भारत में आम लोगों में जागरूकता कम है। जिन देशों में जागरूकता बढ़ रही है, वहां लोग सरकारों से मांग करने लगे हैं कि ध्वनि प्रदूषण रोकने के सख्त उपाय किए जाएं। अमेरिका में राजमार्ग और वैमानिक शोर-शराबे को कम करने के लिए संघीय मानक बनाये गए हैं। कनाडा और यूरोपीय संघ में कुछ ऐसे राष्ट्रीय, प्रांतीय और राज्य कानून हैं जो ध्वनि प्रदूषण से स्थानीय नागरिकों की रक्षा करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ध्वनि प्रदूषण को एक नई स्वास्थ्य चिंता मानता है।
कानून और मानक तो भारत में भी हैं, पर आम लोग उन कानूनों को कितना जानते और मानते हैं ?
एक सीमा से ज्यादा शोर मानसिक और शारीरिक दोनों तरह के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। आदमी 80 डेसिबल तक की ध्वनि ही बर्दाश्त कर सकता है। इससे अधिक होने पर व्यक्ति बीमार होने लगता है। सीमा से अधिक शोर ध्वनि प्रदूषण कहलाता है जो हमारे दिल, दिमाग और कान, तीनों पर असर डालता है।
चिकित्सकों का मानना है कि लम्बे समय तक अगर बहुत अधिक शोर में रहना पड़े तो उससे कान के पर्दे को अपूरणीय क्षति पहुँचती है। एक वक्त ऐसा भी आता है जब सुनाई देना कम होते-होते एकदम बंद हो जाता है। बहुत बार इससे 'टिनिटस' नाम की बीमारी हो जाती है जिसमें हर समय कान से चिड़िया की चहचहाहट या सीटी बजने जैसी आवाज आने लगती है। तेज शोर का दिल पर भी असर पड़ता है और मानसिक समस्याएं भी पैदा करता है।
पर विकास के मौजूदा मॉडल में ध्वनि प्रदूषण से बचना मुश्किल है। ध्वनि प्रदूषण की नई-नई वजह पैदा हो रही हैं। वाहन हैं --कार , बस , ट्रक, ऑटो-रिक्शा, मेट्रो, रेल, मोटर साइकिल--सभी तो शोर करते हैं। जैसे-जैसे जनसंख्या और यातायात के साधन बढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे इनसे होने वाला शोर भी हदें लांघता जा रहा है। औद्योगिक विनिर्माण के लिए कारखाने हैं, वे जरूरी हैं, पर वे भी ध्वनि प्रदूषण करते हैं। घर के अंदर जरूरी उपकरण हैं, पंखा, कूलर, टीवी, एग्जॉस्ट, मिक्सी, वाशिंग मशीन--आप मानें न मानें, ये भी ध्वनि-प्रदूषण में योगदान करते हैं। जहाँ जहां भी बड़ी संख्या में लोग जमा होते हैं, कार्यालय,स्कूल, कॉलेज, बस स्टेंड और रेलवे स्टेशन, उनकी बकर-बकर का शोर भी कम नहीं होता। दिन के वक्त तमाम गतिविधियों से पैदा हो रहा शोर समग्र रूप से सीमा लांघता रहता है। लोग इसके आदी हो जाते हैं और पता नहीं चलता कि वे ध्वनि प्रदूषण की
मार झेल रहे हैं।
शादी ,धार्मिक आयोजनों, मेलों, पार्टियों में लाउड स्पीकर और डीजे जब घर के बगल में कान-फाड़ ढंग से बजते हैं, तो आयोजन में भाग लेने वाले बेशक आनंदित होते हों, पर आस पास के इलाकों के हजारों लोगों को बेचैनी होती है। विभिन्न त्यौहारों, उत्सवों, मेलों, सांस्कृतिक-वैवाहिक समारोहों आदि में पटाखे चलाने का चलन है। पटाखों के तेज धमाके तो ध्वनि प्रदूषण को बेहद खतरनाक स्तर तक बढ़ा देते हैं। यही बात प्रेशर हॉर्न के बारे में है।
जिन लोगों के मकान हवाई अड्डे के नजदीक हैं, वे जानते हैं कि कैसे विमान का शोर चिढ़ पैदा करता है। विमान जब उड़ने को होता है या उतरने को होता है तब वह आस पास की कालोनियों तक ही नहीं, करीब सौ वर्ग किलोमीटर के दायरे में शोर पहुंचा रहा होता है।
ध्वनि प्रदूषण से हो रहे नुकसान के बारे में भारत में आम लोगों में जागरूकता कम है। जिन देशों में जागरूकता बढ़ रही है, वहां लोग सरकारों से मांग करने लगे हैं कि ध्वनि प्रदूषण रोकने के सख्त उपाय किए जाएं। अमेरिका में राजमार्ग और वैमानिक शोर-शराबे को कम करने के लिए संघीय मानक बनाये गए हैं। कनाडा और यूरोपीय संघ में कुछ ऐसे राष्ट्रीय, प्रांतीय और राज्य कानून हैं जो ध्वनि प्रदूषण से स्थानीय नागरिकों की रक्षा करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ध्वनि प्रदूषण को एक नई स्वास्थ्य चिंता मानता है।
कानून और मानक तो भारत में भी हैं, पर आम लोग उन कानूनों को कितना जानते और मानते हैं ?
So far as I have read, 70 decibels is the only safe standard to protect hearing for the public.
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ReplyDeleteलेख तो ठीक है लेकिन इसमें यह नहीं बताया कि रिहायशी इलाके में अधिकतम शोर का स्तर क्या होना चाहिए। मेरी जानकारी के मुताबिक दिन के समय, यानी सुबह 6 बजे से रात 10 बजे तक शोर का स्तर रिहायशी इलाके में 55 डेसिबेल से अधिक नहीं होना चाहिए, और रात यानी रात दस बजे से सुबह 6 बजे तक शोर का स्तर
ReplyDelete45 डेसिबेल से अधिक नहीं होना चाहिए।