Wednesday, May 8, 2019

धूप से दूर होते जाने की 'कल्चर' का क्या है खामियाजा ?


बोधि श्री / राजीव शर्मा  
आजकल आप चाहे किसी बच्चे की जांच करा लें या वयस्क की या बुजुर्ग की, उसके रक्त में विटामिन-डी जरूर कम निकलता है। कोई आश्चर्य नहीं कि  थकान बने रहना, मांसपेशियों की कमजोरी या जरा-सा गिर जाने पर हड्डी टूट जाने जैसी समस्याएं आम हो गई हैं। विटामिन डी की कमी से न केवल आपकी हड्डियां कमजोर हो जाती हैं बल्कि आपकी रोग प्रतिरक्षण प्रणाली भी कमजोर हो जाती है और आप जल्दी-जल्दी और बार-बार बीमार पड़ते हैं। बिना श्रम के भी पसीना आने लगता है। ब्लड प्रेशर भी बढ़ सकता है। समय से पहले बुढ़ापा आने लगता है। वैज्ञानिक अध्ययनों से सिद्ध हुआ है कि विटामिन-डी की कमी से कैंसर, ह्रदय रोग, मस्तिष्क आघात,डाइबिटीज, डिप्रेशन व ऑटो इम्यून बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है।  


राहत की बात यह कि आपका शरीर सूर्य की किरणों से खुद-ब-खुद विटामिन-डी बना सकता है। त्वचा में जो कोलेस्ट्रॉल होता है, उस पर जब सूर्य की पराबैंगनी-बी (ultraviolet-B) किरणें गिरती हैं, तो वह विटामिन-डी में तब्दील हो जाता है। एकदम सुबह की धूप में इन किरणों की तीव्रता कम होती है, लेकिन कुछ दिन चढ़ जाने पर वे पर्याप्त तीव्रता की होती हैं और तेजी से विटामिन-डी बनाती हैं। सुबह दस बजे से दोपहर 3 बजे तक की धूप यदि 10 मिनट भी बाँहों और चेहरे को मिल जाए तो एक दिन की जरूरत  का विटामिन-डी बन जाता है।

व्यक्ति को हर दिन बहुत मामूली मात्रा, महज 600 IU विटामिन-डी की जरूरत होती है। अगर जाड़ों में आधे घंटे भी सूर्य की ओर नंगी पीठ करके बैठ गए तो यकीन मानिए कि पंद्रह-बीस दिन का विटामिन-डी मिल गया। शरीर यदि ज्यादा विटामिन-डी बना ले, तो वह बेकार नहीं जाता, शरीर में जमा हो जाता है और बाद में काम आता है। 

तो अब ऐसा क्या हो गया कि हर बंदा, विशेषकर महानगरों में  विटामिन-डी की कमी झेल रहा है। इसके लिए जिम्मेवार है, बदला हुआ ज़माना, बदली हुई जीवन शैली जिसमें हम चाहें या न चाहें, हमेशा सूर्य किरणों से दूर ही रहते हैं। घर ऐसे कि उनमें धूप नहीं आती, वे चारों तरफ से बंद होते हैं, दुकान-ऑफिस में तो इसका सवाल ही नहीं। पैदल आज धूप में कौन चले, बस, मेट्रो या कार में चलते हैं। फैशन की दरकार ऐसी कि धूप कहीं चेहरे और बाँहों पर न पड़ जाए ! कहीं हमारा गोरापन कम न हो जाए, इसलिए घर से बाहर निकलते हैं तो 'सन-स्क्रीन' क्रीम लगाकर निकलते हैं। यह सच है कि अधिक देर धूप में रहने से भी समस्यांएं हैं। लेकिन उससे बिल्कुल दूर रहना भी बीमारी मोल लेना है। 

कभी खिड़की से धूप झाँकने की कोशिश करे तो हम पर्दे टांगकर उसके प्रवेश पर  पर 'बैन' लगा देते हैं--खबरदार, जो कोई रोशनी की किरण अंदर आए ! रोशनी की ये किरणें जिंदगी के लिए कितनी जरूरी है, इसे समझने की कोशिश नहीं की जाती। यहीं से विटामिन-डी की कमी की समस्या शुरू होती है।

यदि धूप से विटामिन-डी न मिल पाए, तो खानपान से भी इसे प्राप्त किया जा सकता है। मशरूम, मछलियों और अण्डों की जरदी (पीला हिस्से) में यह विशेष रूप से पाया जाता है। आमतौर पर कमी होने पर लोग कॉड लिवर ऑइल से विटामिन-डी प्राप्त करते हैं। दिल्ली में मदर डेरी के दूध में विशेष रूप से यह मिलाया जाता है। विटामिन-डी वाले दूध का दही, छाछ, पनीर अच्छा रहता है। 

शरीर में विटामिन-डी की अत्यधिक कमी हो जाए तो उसके लिए डाक्टर की सलाह से सप्लीमेंट लेना जरूरी हो जाता है। वे पहले रक्त जाँच के जरिए पता करते हैं कि कमी कितनी है। सप्लीमेंट की 'डोज़' तय करने के लिए यह जरूरी है क्योंकि एक सीमा से अधिक विटामिन-डी विषाक्तता पैदा करता है। 

Sunday, May 5, 2019

वायु प्रदूषण से बढ़ रही है सांस की बीमारी 'ऐज्मा'

राजीव शर्मा
सांस या दमा के मरीजों को अक्सर मुंह में इनहेलर (inhaler) लगाए देखते हैं। हम ऐसे सीन देखकर सिर्फ यही समझ पाते हैं कि उससे मरीज को सांस लेने में मदद मिल रही है। लेकिन हम उस वक्त उस मरीज की ऐज्मा (asthma) की पीड़ा या परेशानी नहीं समझ पाते। यदि वह सही समय पर इनहेलर का इस्तेमाल न कर पाए  तो उसकी मौत तक हो सकती है। अरसा पहले आई सलमान खान की चर्चित फिल्म दबंग में ऐज्मा की मरीज, उसकी मां नैना देवी बनी डिंपल कपाड़िया सिर्फ इसलिए दम तोड़ देती हैं कि उनके घर में घुस आए लुटेरे उनका इनहेलर छीन लेते हैं और सांस न ले पाने से उनकी मौत हो जाती है।

क्या है ऐज्मा ? यह सांस संबंधी बीमारी है। जब आप आसानी से और पूरी सांस न ले पा रहे हों तो समझिए आप ऐज्मा के शिकार हो रहे हैं। हालांकि लक्षण और भी हैं जैसे बलगम वाली या बिना बलगम वाली खांसी, सीने में जकड़न महसूस होना या सांस फूलना या सांस लेने में कठिनाई महसूस होना। सांस लेते समय या बोलते समय घरघराहट होना। सुबह या रात के समय व्यक्ति की हालत और बिगड़ती है और ठंडी हवा से परेशानी बढ़ती है। व्यायाम के समय कई बार जलन होने से हालत और बदतर हो जाती है। जोरजोर से सांस लेना और उससे थकान महसूस करना भी, इसी का लक्षण है तो कई बार इससे उलटी की शिकायत हो सकती है।

ऐज्मा का सबसे बड़ा कारण है वायू प्रदूषण, जिसमें सबसे बड़ा योगदान निरंतर बढ़ रहे वाहनों का है। जैसे-जैसे प्रदूषण बढ़ा है ऐज्मा खतरा भी बहुत बढ़ गया है। एक अध्ययन के मुताबिक पिछले पांच सालों में ही भारत में ऐज्मा के मरीजों की संख्या बढ़कर दोगुनी हो गई है। दिल्ली एक बार दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर होने का तगमा पा चुका है। दिल्ली ही नहीं, देश के कई बड़े शहर प्रदूषण के मामले में एक दूसरे को पछाड़ने की होड़ करते दिखाई दे रहे हैं।

कई बार, किसी पदार्थ विशेष से एलर्जी भी ऐज्मा का कारण हो सकती है, जैसे सल्फर डाइ-ऑक्साइड युक्त घरेलू रसायन, कुत्ते और बिल्लियां, घर के धूल के कण, पुष्प-पराग, औधोगिक धुंआ, सुगंधित सौंदर्य प्रसाधन आदि।

लैंसेट ग्लोबल हैल्थ रिपोर्ट के मुताबिक भारत में ऐज्मा के दुनिया में सबसे ज्यादा मरीज हैं। मोटर वाहनों का धुंआ सबसे बड़ी वजह है। दो-तीन दशक पहले तक हालत यह न थी। वाहनों से कार्बन डाइआक्साइड, कार्बन मोनोआक्साइड, नाइट्रोजन आक्साइड, हाइड्रोकार्बन्स और सल्फर आक्साइड के तौर पर होने वाला वायु प्रदूषण इसकी सबसे बड़ी वजह बन गया है। जैसे-जैसे सड़कों पर वाहन बढ़ रहे हैं हालात ख़राब होते जा रहे हैं।

होता यह है कि जब धूल और धुंए के कण हमारे फेफड़ों में जाकर फंस जाते हैं तो वे हमारी सांस लेने वाली नलियों में बाधा पैदा कर देते हैं। मरीज की दिल की धड़कन बढ़ जाती है। यही ऐज्मा की शुरूआत होती है। एक अध्ययन के अनुसार यदि आपके आसपास वाहनों की आवाजाही ज्यादा हो तो ऐज्मा का खतरा बढ़कर दोगुना हो जाता है।

ऐज्मा बच्चों पर तो कहर बनकर टूटता है। अपरिपक्व प्रतिरक्षा शक्ति (immunity) के कारण, वे जल्द ही इसका शिकार हो जाते हैं। हर साल 40 से 50 लाख बच्चे ऐज्मा का शिकार होते हैं, जिनमें से अकेले भारत में ही करीब चार लाख बच्चे होते हैं। ऐज्मा के बाल मरीजों के मामले में भारत चीन के बाद दूसरे नंबर पर है। डर इस बात का है कि यदि प्रदूषण बढ़ता रहा तो जल्द ही इस मामले में भारत पहले नंबर पर आ सकता है। सबसे ज्यादा बच्चे वाहनों से निकलने वाली नाइट्रोजन ऑक्साइड  के कारण  ऐज्मा का शिकार होते हैं।

ऐज्मा से पीड़ित बच्चों में 92 फीसदी उन क्षेत्रों से आते हैं जहां वाहनों की आवाजाही जरूरत से ज्यादा है। वाहनों से भारी प्रदूषण के अलावा भी और कई वजहें ऐज्मा का कारण बनती हैं। जैसे सर्दी फलू और धूम्रपान भी इसकी वजह हो सकते हैं। एसिड रिफ्लक्स (पेट के एसिड का भोजन नली तक आना) भी सांस फूलने का एक कारण हो सकता है। तो दवाइयां भी ऐज्मा की वजह बन सकती हैं और शराब की लत भी। भावनात्मक तनाव भी ऐज्मा का एक कारण हो सकता है और जरूरत से ज्यादा व्यायाम भी।

कई बार मौसम में बदलाव और अनुवांशक वजहें भी जिम्मेदार हो सकती हैं। यदि परिवार में ऐज्मा का इतिहास रहा हो तो हम कुछ सावधानियां बरतकर इससे बच सकते हैं। इसके लिए सबसे पहले हमें अपनी दिनचर्या को स्वस्थ बनाना चाहिए। हमें नियमित तौर पर प्राणायाम और व्यायाम करना चाहिए। सामान्य चाय के बजाय तुलसी, अदरक और काली मिर्च की चाय पिएं। हरी और पत्तेदार सब्जियां खाएं। शलगम, पुदीना, आलू, ब्रोकली, चौलाई और सहजन आदि का सेवन करें। विटामिन ए, बी और सी वाले भोजन खाना ऐज्मा से बचाव का बेहतर उपाय हैं। जिन चीजों से एलर्जी है, उनसे दूर रहें। रात को देर तक न जगें और धूम्रपान करते हैं तो उससे तुरंत निजात पा लें।

7 मई, 2019 को 'वर्ल्डऐज्मा डे' है। कृपया उक्त जानकारी को व्यापक रूप से प्रसारित करें। 

Wednesday, May 1, 2019

कितनों को लूट लिया इन पीले-चिकने 'आमों' ने ....!


राजीव शर्मा / बोधि श्री 

आम का मौसम है। पीले और तरोताज़ा आम देखकर आपके मुंह में भी पानी भर आता होगा, लेकिन क्या आपको पता है कि स्वास्थ्य के लिए वरदान माने जाने वाले आम एक जहर भी अपने पेट के अंदर पहुंचा सकते हैं। एक ऐसा जहर जो आपको कैंसर जैसी बीमारी दे सकता है, आपकी याददाश्त ख़त्म कर सकता है व आंखों की रोशनी छीन सकता है। यह कहानी सिर्फ आम की नहीं, बल्कि आम, पपीता, चीकू, केला आदि अनेक फलों के बारे में भी उतनी ही सही है। 

असल में फलों को तेजी से पकाने के चक्कर में लाखों करोड़ों लोग इन बीमारियों के जोखिम से रूबरू हैं। फलों को तेजी से पकाने के लिए कैल्शियम कार्बाइड के इस्तेमाल से ऐसा हो रहा है। कैल्शियम कार्बाइड से पके फल आज भारत के हर शहर की फल मंडियों में बिक रहे हैं और लोग इन्हें स्वास्थ्य के लिए जरूरी मानकर बड़े चाव से खा रहे हैं। 

Photo by HOTCHICKSING on Unsplash
 स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होने की वजह से भारत में भी अन्य देशों की तरह कैल्शियम कार्बाइड से फल पकाने पर प्रतिबन्ध है। कोई व्यक्ति यदि कैल्सियम कार्बाइड से फल पकाने का दोषी पाया जाए तो  खाद्य सुरक्षा और मानक विनियम, 2011 के तहत उस पर पांच लाख रुपये का जुर्माना या छह महीने की जेल या दोनों सजा दी जा सकती है। लेकिन शायद ही ऐसा कोई शहर हो जहां फल मंडियों के आसपास कार्बाइड से पकाये फल खुलेआम न बिक रहे हों। समय-समय पर कई अखबार और टीवी चैनल अपने स्टिंग आपरेशनों में इसका खुलासा करते रहते हैं, लेकिन इसका प्रशासन पर इसका कोई असर नहीं पड़ता।

फल-विक्रेता कच्चा आम, पपीता, चीकू, केला आदि  मंगाना ज्यादा अच्छा समझते हैं। कच्चे फल को पकाने के लिए वे पहले उसे एक टोकरी में रखते हैं फिर उसमें कार्बाइड का एक टुकड़ा डाल देते हैं। फिर टोकरी को कागज से या जूट की बोरी से ढक दिया जाता है। ऐसी कई टोकरियों को एक कमरे में रखकर 30 से 40 घंटे के लिए छोड़ दिया जाता है। इसके बाद वे बाजार में आ जाते हैं।

बड़े व्यापारी बहुत सारा आम या अन्य फल इकट्ठा एक कमरे में रख देते हैं। उसी कमरे में कार्बाइड की एक मात्रा भी रख दी जाती है। उसके बाद कमरे को अच्छी तरह से सील कर दिया जाता है। जब फल पक जाते हैं तो उन्हें बेचने के लिए भेज दिया जाता है। आम की बात करें तो कार्बाइड से पकाने पर आम का छिल्का चटक पीला हो जाता है जिससे आम की सुंदरता भी बढ़ती है। एक फल व्यवसायी का कहना था कि नेचुरल तरीके से आम को पकाने में 15 दिन तक लग जाते हैं। इतने लंबे समय तक पूँजी फंसाना क्यों फंसाएं, इसलिए जल्दी से फल कार्बाइड से पकाकर बेचे जाते हैं।

कार्बाइड से  केला और पपीता कुछ ही घंटों में पककर तैयार हो जाता है जबकि प्राकृतिक तरीके से केला और पपीता पकाने में चार से पांच दिन लगते हैं। लेकिन कार्बाइड से पके फलों का स्वाद कमतर तो होता ही है, लम्बे समय तक कार्बाइड से पके फल खाने पर आपका नर्वस सिस्टम खराब हो सकता है, आप त्वचा कैंसर जैसी बीमारी का शिकार भी हो सकते हैं। इससे लकवा भी हो सकता है। कार्बाइड के असर से दस्त हो जाना और पेट दर्द की शिकायत तो आम है। कार्बाइड के आंखों के संपर्क में आने से इससे आंखों की रोशनी तक जा सकती है।

कार्बाइड से पके आमों या फलों से बचाव के लिए आप कुछ सावधानियां अपने स्तर पर बरत सकते हैं। पहली सावधानी यह कि फलों को नमक के पानी में कम  से कम 20 मिनट अच्छी तरह डुबोकर रखें और फिर साफ़ पानी से धोने के बाद ही खाएं। संभव हो तो बाजार से कच्चा आम या फल खरीदें, उन्हें अखबार में लपेटकर बंद कमरे में रख दें। पांच छह दिन के भीतर वे पककर तैयार हो जाएंगे।