Monday, April 29, 2019

क्या कामयाब होगा मलेरिया का टीका ?

राजीव शर्मा / बोधि श्री 

मलेरिया का मतलब सिर्फ तेज बुखार,कंपकंपी और कमजोरी ही नहीं, बिगड़ जाए तो वह जानलेवा भी साबित हो सकता है। लगभग हर मिनट दुनिया में एक जान, मलेरिया से जाती है। अफ्रीकी देशों में तो यह बीमारी बच्चों पर कहर बनकर बरसती है। अफ्रीका में हर साल ढाई लाख बच्चे मलेरिया की वजह से मौत के मुंह चले जाते हैं। पूरी दुनिया में मलेरिया से होने वाली मौतों में 61 फीसदी बच्चे ही होते हैं।

गरीबों की इस बीमारी से निपटने के लिए अनुसन्धान-राशि की किल्लत तो हमेशा रही , फिर भी वैज्ञानिक इससे बचाव के असरदार तरीके ढूंढने में जुटे रहे हैं। इसी कड़ी में वे 32 साल के अनवरत प्रयास के बाद मलेरिया का पहला टीका 'RTS,S' इस स्तर तक लाने में कामयाब हुए कि इसे अब बच्चों में बृहत परीक्षण के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। भारत सहित दुनिया में मलेरिया के कुछ और टीके, विकास के विविध चरणों में चल रहे हैं। 


Photo by Thomas Kinto on Unsplash

सारी दुनिया के मलेरिया विशेषज्ञों की नज़र इस बृहत परीक्षण के नतीजों पर रहेगी। टीके की शुरूआत 'वर्ल्ड मलेरिया डे' पर अफ्रीकी देश 'मलावी' से हुई है। इसके बाद कीनिया और घाना में यह टीकाकरण अभियान शुरू होगा। कुल मिलाकर अफ्रीका के 360, 000 बच्चों को यह टीका लगाया जाएगा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक सन 2009 और 2014 के बीच इसके सीमित स्तर पर परीक्षण हो चुके थे और यह मलेरिया के दस में से चार मामलों में जान बचाने में कामयाब हुआ। मतलब, हर दस में से छह के लिए जान का खतरा बना ही रहेगा, यानी यानी शत-प्रतिशत बचाव के लिए अभी बहुत काम बाकी है। 

टीकाकरण का यह कार्यक्रम दो साल से कम उम्र के बच्चों के लिए है। उन्हें इंजेक्शन के जरिए यह टीका दिया जाएगा। भारत में भी मलेरिया से मौतें होती हैं। मलेरिया के प्रकोप के मामले में भारत को विश्व में तीसरे स्थान पर गिना जाता है। 2018 में 399,134 मलेरिया के मामले सामने आये और 85 मलेरिया से हुई मौतों के। पर चूँकि मलेरिया के मरीजों को रिकॉर्ड में लाने की अनिवार्यता नहीं, इसलिए निजी चिकित्सक इस बात को सामने लाते ही नहीं कि उन्होंने मलेरिया के मरीज की चिकित्सा की। नतीजा यह कि 8 प्रतिशत मामले ही दर्ज हो पाते हैं।

भारत में चिंता की बात यह भी है कि मच्छर मारने वाली दवाएं बेअसर होने लगी हैं। मलेरिया के मरीजों की चिकित्सा में काम आने पुरानी दवा क्लोरोक्वीन बहुत पहले बेअसर हो चुकी है, नई दवाइयां भी कहीं बेअसर न हो जाएं, इसकी चिंता भी बनी रहती है।

भारत में 'जांच करो, इलाज करो और नजर रखो' प्रोग्राम सफल रहा है। लेकिन नई चिंताओं के मद्देनज़र भारत के वैज्ञानिकों को स्वदेशी टीके के विकास का काम तेज करना चाहिए। यह तभी हो सकता है जब दवा उद्योग या सरकार अनुसन्धान के लिए समुचित धन की व्यवस्था करे।  


  

Saturday, April 27, 2019

दोस्त भी है, दुश्मन भी 'कोलेस्ट्रॉल' !

राजीव शर्मा / बोधि श्री 
देश में रोज हजारों लोग लाइलाज बीमारियों के नाम पर मौत के मुंह में चले जाते हैं। लेकिन इन बीमारियों के साथ कोई न कोई ऐसी वजह जरूर जुड़ी होती है जिसका समय रहते निदान कर लिया जाए तो इस तरह मौत का निवाला बनने से बचा जा सकता है। दिल की बीमारी से जुड़ी ऐसी ही एक मुश्किल है कोलेस्ट्राॅल। इसे यदि दिल का सबसे बड़ा दुश्मन कहा जाए तो गलत नहीं होगा। आज भी हमारे देश में दिल की बीमारी से मरने वाले हजारों लोगों को यह पता नहीं होता कि आखिर ये कोलेस्ट्राॅल है क्या बला !

कोलेस्ट्राल एक वसा या वसा जैसी चीज है जो हमारे खून में प्रसारित होती है। कम लोगों को पता है कि शरीर में कुछ मात्रा में इसकी मौजूदगी शारीरिक क्रियाओं के लिए अत्यंत जरूरी है। अगर हम सीधे भोजन से इसे नहीं प्राप्त कर पाते, तो हमारा लिवर इसे बनाकर देता है। यह हार्मोन, विटामिन-डी और अन्य ऐसी चीजें बनाने के लिए जिससे भोजन ठीक से पच सके, जरूरी है। शरीर में कोलेस्ट्रॉल न हो तो शरीर की न जाने कितनी प्रक्रियाएं ठप हो सकती हैं। इस तरह कोलेस्ट्रॉल इंसान का जरूरी दोस्त भी है।

फिर इसे स्वास्थ्य का दुश्मन क्यों करार दिया जाता है? इसे समझने के लिए हमें जानना होगा कि कोलेस्ट्राॅल कई प्रकार के होते हैं। इनमें से एक है--कम घनत्व वाला जिसका मेडिकल नाम है 'लो डेंसिटी लिपोप्रोटीन' (Low Density Lipo-protein) जिसे आम बोलचाल में  LDL कहा जाता है। इसे ही हानिकारक या बैड कोलेस्ट्राॅल माना जाता है। यही कोलेस्ट्राॅल दिल का दुश्मन है। इसका स्तर जब हमारी रक्त धमनियों में बढ़ जाता है तो वह दिल की बीमारियों की वजह बनता है। इसी तरह वैरी लौ डेंसिटी लिपोप्रोटीन (VLDL) होती हैं जो और भी खतरनाक होती हैं। इसके अलावा रक्त में कोलेस्ट्रॉल से मिलती-जुलती एक अन्य चीज होती है, ट्राइग्लिसराइड्स (Triglycerides) । यह भी हृदय  रोग को आमंत्रित करती है। एक अन्य कोलेस्ट्राॅल होता है--उच्च घनत्व वाला जिसका मेडिकल नाम है 'हाई डेंसिटी लिपोप्रोटीन' यानी 'HDL'। इसे ही अच्छा या गुड कोलेस्ट्राॅल कहते हैं।  

यदि आपके खून में एलडीएल का स्तर बहुत अधिक है तो यह आपकी धमनियों में जमा होता जाता है। इससे धमनियां संकरी हो जाती हैं जिससे रक्त प्रवाह कम हो जाता है जिससे पर्याप्त ऑक्सीजन आपके दिल की मांसपेशियों तक नहीं पहुंच पाती जिससे दिल का दौरा पड़ सकता है। यदि ब्रेन में ऐसा हो तो आपको 'स्ट्रोक' (मस्तिष्काघात) हो सकता है। यदि कुछ मिनट भी मस्तिष्क के किसी हिस्से में रक्त का प्रवाह रुक जाये तो उसके गंभीर नतीजे होते हैं।  

आम तौर पर डाक्टर रक्त में कोलेस्ट्राॅल की मात्रा जानने के लिए 'लिपिड प्रोफाइल' (Lipid Profile) नाम का टेस्ट करवाते हैं। यह टेस्ट रक्त में टोटल कोलेस्ट्रॉल (Total Cholesterol), वीएलडीएल (Very Low Density Lipo-protein), एलडीएल (Low Density Lipo-protein), एचडीएल (High Density Lipo-protein) की मात्रा उजागर करता है। सेहतमंद होने की निशानी है कुल कोलेस्ट्राॅल 200 मिलीग्राम प्रति डेसीलिटर से कम हो। कुल कोलेस्ट्रॉल से अधिक इस बात का महत्व है कि खराब कोलेस्ट्राॅल और अच्छे कोलेस्ट्रॉल का अनुपात कैसा है। यदि अच्छे कोलेस्ट्रॉल की मात्रा अधिक है तो आपका दिल सुरक्षित है।

सवाल यह है कि दिल के दुश्मन, बुरे कोलेस्ट्राॅल से बचा कैसे जाए। एहतियात के तौर पर बीस साल की उम्र पार कर चुके हर इंसान को हर पांच साल में Lipid Profile Test करा लेना चाहिए। पुरुषों को 45 की उम्र पार करने के बाद और महिलाओं को 55 की उम्र पार करने के बाद तो यह टेस्ट हर साल करवाना चाहिए। 

कोलेस्ट्रॉल ज्यादा होने की कई वजहें होती हैं जैसे अधिक तैलीय आहार, शारीरिक गतिविधियों की कमी, आरामतलब जिंदगी, धूम्रपान, मद्यपान आदि इनके अलावा अनुवांशिकता भी एक बड़ी वजह है। आहार में वसा की मात्रा सीमित करने और प्रतिदिन कम-से-कम 30 मिनट कसरत या तेज चाल से भ्रमण करने से समुचित मात्रा में  अच्छा कोलेस्ट्रॉल बन जाता है। सिगरेट पीते हैं तो उसे तुरंत छोड़ दें। मांसाहार में रेड मीट (भेड़, बकरी, बीफ, पोर्क आदि लाल रंग के मांस) तुरंत छोड़ दें, अगर लेना भी हो, तो व्हाइट मीट (अंडे, चिकन, मछली) चल सकता है। 

नियमतः साबुत अनाज, फल और सब्जियों का अधिक सेवन करें।


Wednesday, April 24, 2019

मोटापाः न महामारी न बीमारी, फिर भी मुसीबत !

राजीव शर्मा
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि मोटापा सारी दुनिया में महामारी की तरह फैल रहा है। उसका यह कथन इसलिए हैरान और परेशान करने वाला है क्योंकि मोटापा अपने आप में कोई बीमारी नहीं। लेकिन कई बीमारियों की जड़ जरूर है। एक बार मोटापे की चपेट में आ जाने के बाद रोगग्रस्त होने के कई रास्ते खुल जाते हैं। पर मोटापे से किसी रोग के पनपने की प्रक्रिया धीमी होती है और हमें इसका अहसास तब होता है जब हम उसके शिकार हो चुके होते हैं .

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार मोटापा दुनिया में मौत की चार बड़ी वजहों में से एक है और इसी की वजह से हर साल 30 लाख लोग मौत के गाल में समा जाते हैं। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक हर आयु वर्ग पर यह बात लागू होती है कि हम जितना मोटापे से खुद को बचाए रखेंगे, उतने ही ज्यादा समय तक सेहतमंद बने रहेंगे।

मोटापे का सबसे बड़ा कारण है, हमारे भोजन में जरूरत से ज्यादा कैलोरी होना। यदि किसी व्यक्ति को 2,000 कैलोरी की जरूरत है और वह खानपान से 3,000 कैलारी ले रहा है तो उसके शरीर पर वसा की परतें चढ़ती चली जाएंगी। पर अगर वह गैर जरूरी कैलोरी को कसरत या अन्य शारीरिक कार्यों के जरिये खर्च करता रहे तो मोटापे से बचा जा सकता है।

सवाल यह है कि हम हम मोटापा किसे मानें। इसके लिए जरूरी है कि हम अपने शरीर की ऊंचाई और कमर के घेरे का पता लगाएं और हर छह माह बाद इसकी नापजोख करते रहें। यदि ऐसा कर पाते हैं तो मोटापे के आने से पहले ही हम उसके प्रति सतर्क हो जाएंगे। ऊंचाई और कमर के घेरे को कुछ इस तरह नियत किया जा सकता है -- एक व्यक्ति जिसकी ऊंचाई 6 फुट यानी 72 इंच है तो उसे अपनी कमर की माप 36 इंच से कम रखनी  चाहिए। इसी तरह एक महिला जिसकी ऊंचाई 5 फुट चार इंच है यानी 64 इंच है तो उसे अपनी कमर की माप 32 इंच से कम रखनी चाहिए।

मोटापा कई तरह की बीमारियां पैदा कर सकता है। जैसे मोटापा बढ़ने पर शरीर में सोडियम ज्यादा मात्रा में इकट्ठा हो जाता है जिससे ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है जो दिल की बीमारियों के लिहाज से खतरनाक स्थिति है। इसी तरह मोटापा टाइप-टू डायबिटीज की सबसे बड़ी वजह है। शरीर में वसा की मात्रा अधिक होने पर शरीर इन्सुलिन के प्रति अवरोधी हो जाता है। अधिक वजन से आर्थ्राइटिस की समस्या हो सकती है, क्योंकि इससे जोड़ों पर अधिक वजन पड़ता है। ज्यादा मोटापे की हालत में ब्रेन स्ट्रोक और दिल का दौरा पड़ने की आशंका बढ़ जाती है।

'हावर्ड स्कूल ऑफ़ पब्लिक हैल्थ' में छपी एक स्टडी के अनुसार महानगरों में रहने वालों में से 70 फीसदी से ज्यादा लोग मोटापे का शिकार हैं। दिल्ली महानगर में ही प्राइवेट स्कूलों के 45 फीसदी और सरकारी स्कूलों के 7 फीसदी बच्चे मोटापे से ग्रस्त पाए गए हैं।

मोटापे से बचने या इसे रोकने के लिए डाॅक्टर की सलाह होती है भोजन में वसा और कार्बोहाड्रेट की मात्रा कम रखी जाए और प्रोटीन व रेशेदार चीजों (फल, सब्जियों) की मात्रा बढ़ाई जाए। इसके अलावा, शारीरिक गतिविधियां बढ़ाई जाएं।

Friday, April 19, 2019

खबरदार कोई सुन न ले, अस्पताल में मौत का नया सौदागर आया है !

राजीव शर्मा / बोधि श्री

विगत 6 अप्रैल, 2019 को न्यूयार्क टाइम्स में छपी एक खबर चिकित्सा जगत में हड़कंप की वजह बन गई। इसकी वजह यह कि एक फंगस जो दवा प्रतिरोधी होता जा रहा है, जिससे संक्रमित आधे लोग शर्तिया तौर पर मर जाते हैं और जो एक-के-बाद-एक दुनिया भर के अस्पतालों में फैलता जा रहा है, फिर भी उसके इस हमले को लगभग गोपनीय रखा जा रहा है।

न्यूयार्क टाइम्स की उक्त रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल मई में एक बुजुर्ग आदमी को पेट की सर्जरी के लिए माउंट सिनाई अस्पताल की ब्रुकलिन शाखा में भर्ती कराया गया था। यह व्यक्ति एक ऐसे फंगस से संक्रमित था जो किसी भी उपलब्ध दवा से ठीक नहीं हो सकता था। यह फंगस था 'कैंडिडा ऑरिस' (Candida auris)। इसका यह नाम इसलिए रखा गया क्योंकि यह पहली बार 2009 में जापान में एक मरीज के कान में पाया गया था। 'ऑरिस' का ग्रीक भाषा में मतलब है कान। 

'कैंडिडा ऑरिस' HIV/AIDS से ज्यादा खतरनाक है क्योंकि यह सप्ताह भर में ही किसी व्यक्ति के इम्यून सिस्टम को तबाह कर सकता है। खतरा यह है कि कहीं यह दवा-प्रतिरोधी फंगस पूरी दुनिया को अपनी गिरफ़्त में न ले ले। पिछले पांच साल में इस फंगस ने वेनेजुएला के एक अस्पताल की नवजात (Neonatal) यूनिट और स्पेन के एक पूरे अस्पताल को अपना निशाना बनाया। इसकी वजह से प्रतिष्ठित ब्रिटिश मेडिकल सेंटर को तो अपना 'आईसीयू' तक बंद करना पड़ा। यह फंगस अमेरिका में न्यूयार्क और न्यूजर्सी तक जा पहुंचा और वहां के 'सेंटर्स फॉर डिसीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन' (CDC) को इसे चिकित्सा जगत में दुनिया के लिए सबसे बड़ा मौजूदा खतरा घोषित करना पड़ा।

फेसबुक के साइंस टाइम पेज पर लिखा गया कि माउंट सिनाई में भर्ती मरीज तो 90 दिनों में मर गया, लेकिन 'कैंडिडा ऑरिस' नहीं मरा। जांच से पता चला कि यह कीटाणु (फंगस) उस मरीज के मरने के बाद भी कमरे में हर कहीं मौजूद था। उससे निपटने के लिए अस्पताल को विशेष सफाई उपकरणों की जरूरत पड़ी। इसके लिए उस कमरे की छत और फर्श की टाइलों तक को बदला गया।

अमेरिका के डिप्टी स्टेट एपिडेमियोलॉजिस्ट डॉ. लेनन सोसा का कहना है कि दवा प्रतिरोधी संक्रमणों (infections) में फिलवक्त 'कैंडिडा ऑरिस' सबसे बड़ा खतरा है। यह पूरी तरह पराजित होने वाला नहीं, इसे पहचानना भी बहुत मुश्किल है। ज्यादातर बड़े अस्पतालों के डॉक्टरों का कहना है कि इस बारे में लोगों को जागरूक करना बेहतर हो सकता है लेकिन कुल मिलाकर इससे लोगों में अस्पतालों को लेकर आतंक ही फैलेगा। यही वजह है कि इन्फेक्शन का पता चल जाने के बावजूद इसे छिपाया जाता है। 

इंपीरियल कॉलेज ऑफ़ लन्दन के फंगल एपिडेमियोलॉजी के प्रोफेसर मैथ्यू फिशर का कहना है कि दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया और दवा-प्रतिरोधी फंगस का अस्तित्व में आना भीषण समस्या है। 2016 में यह मसला सन्युक्त राष्ट्र महासभा में उठ चुका है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि असरदार नई दवाएं नहीं बनाई गईं और मौजूदा दवाओं का दुरुपयोग नहीं रुका तो यह समस्या तेजी से बढ़ेगी और दुनिया की स्वस्थ आबादी के लिए भी खतरा पैदा हो जाएगा। ब्रिटिश सरकार द्वारा कराये गए एक शोध के मुताबिक यदि ड्रग रैजिस्टैंस की समस्या नहीं थमी तो 2050 तक हर साल इसी वजह से एक करोड़ लोग मरने लगेंगे।

यहां हमें याद रखना चाहिए कि माउंट सिनाई में जिस कैंडिडा ऑरिस से एक आदमी की मौत हुई थी वह उन बहुत सारे बैक्टीरिया या फंगसों में से महज एक है जिन्होंने ज्यादातर दवाओं के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है। वाशिंगटन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ़ मेडिसिन के ताजा आंकड़ों के मुताबिक अकेले अमेरिका में ही इस तरह के संक्रमण से हर साल 23,000 लोगों की मौत हो जाती है। 

यह जरूरी नहीं कि 'कैंडिडा ऑरिस' निश्चित तौर पर जान ही ले ले। अभी जो मामले अस्पतलों में पहुंचते हैं, वे सौ फीसदी ड्रग रेजिस्टैंट नहीं होते। CDC का आकलन है कि 'कैंडिडा ऑरिस' एक दवा के खिलाफ 90 फीसदी रेजिस्टैंट हो चुका है तो अन्य दो या तीन दवाओं के खिलाफ 30 फीसदी।

वैज्ञानिकों का मानना है कि खेती में बड़े पैमाने पर एंटीफंगल दवाओं के इस्तेमाल से ही उक्त दवा-प्रतिरोधी फंगस अस्तित्व में आया है। यदि हमें कैंडिडा ऑरिस जैसे प्रतिरोधी फंगस पर लगाम कसनी है तो सबसे पहले फंगसनाशी दवाओं का अवैज्ञानिक अंधाधुंध उपयोग रोकना होगा।